अयोध्या हो धर्मप्रचार का केंद्र!

अयोध्या हो धर्मप्रचार का केंद्र!

19-01-2024

जय श्रीराम

अयोध्या हो धर्मप्रचार का केंद्र! 

  • सौजन्य का लोप ही अयोध्या के आंदोलन का कारण
  • आगे न हो ऐसे आंदोलनों की आवश्यकता
  • सनातन धर्म पर हमले दुर्भाग्यपूर्ण हैं।

मूर्तिपूजन का हिंदू धर्म में अत्यंत प्रमुखस्थान है। हर चेतना स्वरूप को हमारे पूर्वजों ने कुछ रूप दिया और उस रूप में ही उसकी पूजा-अर्चना की थी। विघ्नों का हरण करनेवाले गणेश का रूप, ज्ञान के लिए माँ शारदा रूप..इस प्रकार अनेक प्रकार की मुर्तियों और आकारों का सृजन किया गया। उसी प्रकार धर्म के लिए यदि कुछ रूप का प्रवर्तन किया जाये, तो वह भगवान श्रीरामचंद्र ही होगा- इसमें कोई दो राय नहीं। महर्षि वाल्मीकि अपने ग्रंथ रामायण के माध्यम से सकलगुणों से युक्त मर्यादा पुरुषोत्तम राम का परिचय कराते हैं। षड्रिपु को पार करके सत्य व धर्म का आचरण करनेवाला एक संपूर्ण व्यक्तित्व ही भगवान श्रीरामचंद्र हैं। इसलिए “रामो विग्रहवान धर्मः” कहकर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती है। इस संदर्भ में काञ्ची कामकोटिमठ-परंपरा के 70 वें पीठाधीश, परमपूज्य जगद्गुरु श्रीश्रीश्री शङ्कर विजयेन्द्रसरस्वती शङ्कराचार्य स्वामीजी महाराज  का कहना है कि ‘राग-द्वेषादि मनोविकारों से परे, सार्वजनिक, सर्वव्यापी एवं सर्वात्मभाव-एकात्मभाव से युक्त धर्म को यदि साकाररूप दिया जाये तो वही भगवान श्रीरामचन्द्र हैं।’

अयोध्या में संपन्न होनेवाले भगवान बालराम की मूर्ति के प्रतिष्ठापन के उपलक्ष्य में आपश्री के साथ ‘जागृति’ पत्रिका ने साक्षात्कार लिया और उक्त साक्षात्कार में पूज्यश्री काञ्ची शङ्कराचार्य स्वामीजी महाराज ने भगवान श्रीराम, भारतीयता एवं धर्म सहित अनेक मुद्दों पर प्रकाश डाला है। उक्त साक्षात्कार के कुछ अंश हमारे पाठको के लिए प्रस्तुत हैं… 



प्रश्न : भारतीयता पर भगवान श्रीराम जी का कैसा प्रभाव रहा है? अपने अभिभाषाण के द्वारा हमारे पाठकों को अनुग्रहीत करने की आपश्री से प्रार्थना है...

पूज्यश्री का उत्तर :  रामजी का नाम सब लोग रखते हैं। उत्तर-दक्षिण का भेदभाव इसमें नहीं है। हर एक व्यक्ति उनका नाम रखता है। क्योंकि ‘रामनाम’ सभी मूल्यों और आदर्शों का प्रतीक है और यह हमारी शक्ति और सामर्थ्य को प्रतिबिंबित करनेवाला नाम है। हमें उस परमशक्ति का सदुपयोग करना चाहिए। हमारा भारतीयधर्म आत्मसंयम सिखाता है। मानव जाति में स्वार्थ विद्यमान तो है, लेकिन धर्म ही यह सीख देता है कि कब क्या कार्य करना चाहिए और किस सीमा तक करना चाहिए। भारतीयता का अर्थ है एक आदर्श मानव जीवन, आचरणयोग्य धर्म एवं एक आदरणीय धर्म। वही धर्म है जो सबको आनंद प्रदान करे। भारतीयता और सनातन संस्कृति दो अलग-अलग विषय नहीं बल्कि एक ही है। ऐसे सनातन धर्म के आदर्श पुरुष ही श्रीराम हैं। इसीलिए कहा गया कि ‘रामो विग्रहवान् धर्मः’। आजकल कुछ लोग विग्रहों (मूर्तियों) का निग्रह (रोक-थाम) कर चुके हैं। परंतु विग्रहों की आराधना, मूर्तिपूजन हमारे धर्म का अत्यंत महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। क्योंकि हमारा धर्म जडता में चेतना को भरता है। चेतना से युक्त मनुष्य को प्रतिक्रिया करनी होगी, उसे कदापि जड़ बनकर जीना नहीं चाहिए। अर्थात् गरीबी को हटाना, चिकित्सा आदि सेवाएँ करना, वृद्ध- जनों की देखभाल करना, शिशु संरक्षण- इस प्रकार समाज की हर इकाई का भारवहन करना ही मनुष्य की चेतना है। यदि पति-पत्नी आपसी कलहों के कारण बिछुड़ जाते हैं, तो उसका प्रभाव उनकी संतान पर पडेगा और इसके कारण उनका मनोबल कमजोर हो जायेगा। इन सभी विषयों के प्रति समाज को जागरूक रहना चाहिए। यही सच्चे अर्थों में भारतीयता है। हमारी मात्र नेशनॉलिटी (राष्ट्रीयता) नहीं है। यह मात्र सिटीजनशिप (नागरिकता) भी नहीं है। हमारी तो सभ्यता यानी सिविलाइजेशन है। भारतीयता का अर्थ व्यक्तियों को नहीं, व्यक्तित्व को परखना है। ऐसा कहीं आप देख सकते हैं तो रामजी का चरित्र आपमें विश्वास भरेगा। उनकी वीरता और पराक्रम विनयगुणसंपन्न है, विवेकयुक्त पराक्रम है, सदुद्देश्यों की पूर्ति के लिए उद्दीप्त पराक्रम है, विनय और विधान की वश्यता से संपन्न पराक्रम है। इसलिए रामजी गुणों की खान हैं         । उन्होंने अपने जीवन में महर्षियों की पूजा की थी, उनका जीवन और उनका चरित्र आज भी समस्त मनुष्यजाति के लिए आदर्शपूर्ण और प्रेरणास्पद है। भगवान श्रीरामचंद्र कर्म, भक्ति और ज्ञानमार्ग रूपी त्रिवेणी संगम हैं! जब वे महर्षियों से मिलते हैं तो उनका मार्ग ज्ञान है। यदि शबरी सरीखे भक्तों को दर्शन देते हैं तो उनका मार्ग भक्तिमार्ग बन जाता है। और अमात्य-मण्डली में यानी सुमन्त इत्यादि सचिवों से व्यवहार करते समय उनका मार्ग सहज ही कर्ममार्ग बन जाता है। इस दृष्टि से भी उनका जीवन अत्यंत प्रेरणास्पद है। 

प्रश्न : अयोध्या के आंदोलन और इसके इतिहास के द्वारा हमारी पीढी और आनेवाली पीढियों को क्या संदेश मिलेगा? और उनको क्या सीखना होगा और इससे किस प्रकार की प्रेरणा लेनी होगी? …

पूज्यश्री का उत्तर : हमारे लिए संघशक्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। विधि, सरकारें और समाज- इनका निर्माण सही दिशा में होना चाहिए और शास्त्र का निर्माण भी होना आवश्यक है। इनमें से सरकार का निर्माण कुछ हद तक जारी है। एक सरकार, एक विधि, अधिकारी, नेता….इस प्रकार प्रक्रिया चल रही है। संगठित संरचना का कार्य चल रहा है। वह सब हमें करना होगा जो इस प्रक्रिया के लिए अच्छा हो और आवश्यक हो। राज का अर्थ सरकार है। स्वामी का अर्थ नेता है। अमात्य का अर्थ सज्जन-सचिव और अच्छे दोस्त हैं। इस प्रक्रिया में धनागार यानी खजाने की परिपुष्टि आवश्यक है, धनवृद्धि और विकास भी आवश्यक हैं। पर्यावरण की व्यवस्था को और सशक्त होना है। केंद्र और राज्यों के मध्य अच्छे संबंध बनने चाहिए। सुरक्षित सीमाएँ और सशक्त सेना भी आवश्यक हैं। उपर्युक्त सप्ताङ्ग यानी सात अंग राज्य के लिए अत्यावश्यक हैं। यदि बात स्वास्थ्य की है तो अष्टाङ्ग है। यदि पूजा का प्रसंग है तो पञ्चाङ्ग है। इन सभी विषयों में हमें इसकी जानकारी रखना आवश्यक है कि हम कहाँ आगे हैं और कहाँ पिछडे हुए हैं। हमारा लोकतन्त्र है अतः, हर एक व्यक्ति एक अंग है। यह सब सरकार का निर्माण है।

समाज की संरचना में सभी की पढाई, सबके लिए घर, आय, उनका परिवार ये सब अंगभूत बनकर सामने आते हैं। वर्गों अथवा व्यक्तियों के बीच वैमनस्य हो सकते हैं किंतु परिवार अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि परिवार ही समाज का केंद्रक है। उसी तरह हमारे परिवेश और वातावरण- ये सब महत्वपूर्ण हैं और यह भी अपेक्षित है कि मूल्याधारित वातावरण मनुष्यों में बने। आजकल हर जगह सीसी टीवी लगे हुए हैं। पर इससे अधिक, मनुष्यों के बर्ताव की बेहतर निगरानी हेतु कांटैक्ट (संपर्क), कल्चर (संस्कृति), कान्फिडेंस (आत्मविश्वास), टोलरेंस (सहनशीलता), टैलेंट (प्रतिभा), वैल्यूज़ (मूल्य) – ये सीसी टीवी लगें हो कितना अच्छा होगा!

एक समय में शास्त्रों का प्रचार मंदिरों साथ साथ वेदप्रतिष्ठान, वैदिक पाठशालाओं, धार्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से हुआ करता था। गुरुकुल के माध्यम से ही शिक्षा को प्राप्त करना आध्यात्मिक शिक्षा की पद्धति है। भगवद्गीता में जिस प्रकार ‘आध्यात्मविद्या विद्यानां’ कहा गया है, उसी प्रकार वेद, शास्त्र और पारंपरिक कला एवं संगीत इत्यादि का प्रचार करना अत्यावश्यक है। इसके नेपथ्य में शब्दार्थ, भावार्थ और परमार्थ- ये सब महत्वपूर्ण हैं। 

यदि अयोध्या-आंदोलन की बात कहें तो शास्त्र का आदर, शास्त्र का आचरण और शास्त्र में विश्वास रखनेवाले मनुष्यों की संख्या में अवनति का ही यह सब परिणाम है और साथ ही साथ उन मनुष्यों में सौजन्य की कमी का भी नतीजा है। समस्या के प्रति सरकार की ओर से सही ढंग की प्रतिक्रिया न होने की स्थिति में और धर्म और भारत के बारे में लोक में सही जानकारी न होने की स्थिति में यह सब हुआ। विदेशियों ने इस घटना को अपनी राजनीति और व्यापार के लिए एक मुद्दा बनाया। विदेशों के साथ जितने संबंध होने चाहिए, उतने ही हों तो ऐसे आंदोलन फिर नहीं देखने पडते। स्पष्ट रूप से कहा जाये तो भारत को आत्मनिर्भर बनायें। पारिवारिक मूल्य, सचाई से कार्य करना, देशभक्ति और दैवीभक्ति- ये सब गुण देशवासियों में रहना अत्यावश्यक है- 140 करोड़ की जनसंख्या वाले इस विशालदेश की रक्षा तभी संभव हो पायेगी। चाहे भाषा, आचार-संप्रदाय रीति इत्यादि अलग अलग हों किंतु सबको भारत और भारतीय संस्कृति के विषय में एकजुट होकर व्यवहार करना होगा। अयोध्या का आंदोलन अनेक चरणों में हुआ था। किन परिस्थितियों के कारणवश यह आंदोलन चला, इस इतिहास को देखना भी आवश्यक है। उन परिस्थितियों के नियंत्रण के लिए आगे की कार्रवाई करनी होगी। हर एक व्यक्ति को अपने देश के कल्याण के बारे में सोचना होगा और सहयोग, सहमत और एकमत की भावना से आगे बढ़ना होगा। यहाँ ‘सहमत’ होने के लिए ‘सन्मति’ यानी सद्बुद्धि का होना भी आवश्यक है! 

प्रश्न: अयोध्या के आंदोलन में काञ्ची कामकोटिपीठ और श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामी महाराज की क्या भूमिका रही है?

पूज्यश्री का उत्तर :  श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी की अत्यंत अहम भूमिका आंदोलन के दौरान रही थी। श्रीराम-जन्मभूमि विमुक्त होनी है और होगी, ऐसा उनका विश्वास था। इसीकारणवश उन्होंने उसी समय अयोध्या में काञ्चीमठ के लिए भूमि क्रय करके रखी थी। अयोध्या में खिड़की खोलने से लेकर द्वारोद्घाटन तक उन्होंने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। विशेषकर प्राचीन निर्माण में दर्शन के लिए अनुमति प्राप्त करने के मामले में भी स्वामीजी का परिश्रम था। स्वामीजी ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनेक कार्य करके- जैसे कि धार्मिक अनुष्ठानों का प्रतिष्ठापन, अनेक बार यात्रा करके अभिभाषण - संवाद करना, चर्चा-परिचर्चाओं में भाग लेना, उद्बोधन सत्रों व प्रोत्साहक सभाओं तथा शांति समारोहों का आयोजन करना, हिंदुओं के साथ अन्य धर्मों के लोगों के पारस्परिक मिलन हेतु सौजन्य सभाओं का आयोजन करना- इस प्रकार बहुत कुछ किया। 

वर्ष 1986- फरवरी के द्वितीय सप्ताह में, द्वारोद्घाटन समारोह संपन्न हुआ। उस समय सबसे पहले मदिर में प्रवेश करनेवाले श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी और कल्याणकृष्ण नामक व्यक्ति- दो ही थे। ये कल्याणकृष्ण दक्षिणभारत के थे और उत्तरप्रदेश सरकार के प्रधान सचिव हुआ करते थे। उस समय काञ्चीपुरम् में महास्वामी (परमाचार्य) श्री चन्द्रशेखरेन्द्रसरस्वती महाराज थे। हम भी उस समय उनके साथ ही थे। रामजी के लिए परमाचार्य जी ने छत्र और चामर बनवाकर भेजे। श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी उस समय में प्रयागराज में रहते थे। उन्होंने अडयपलम् नीलकंठदीक्षित् और मंडकलत्तूर राममूर्ति शास्त्रीजी के द्वारा वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास विरचित रामचरित मानस ग्रंथों का पाठ करवाया था। परमाचार्य श्री चन्द्रशेखरेंद्रसरस्वती स्वामी महाराज की प्रेरणा के माध्यम से श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी के करकमलों के द्वारा वर्ष 1986 में रामजी की सबसे पहली पूजा संपन्न करायी गयी थी। 

अयोध्या शक्तिपीठ है, इसलिए अयोध्या में हम भी नवरात्रि के समय रहे । एकादशी के दिन हमने प्रभु के दर्शन किये। अयोध्या पंचभूत शक्तिपीठों में से एक है। अयोध्या पृथ्वी (भूमि) का क्षेत्र है। “अयोध्यादिषु पीठेषु पृथिव्यादिषु अनुक्रमात्” – यह सौभाग्यचिन्तामणि का वाक्य है। इस ग्रंथ के आधार पर ही पारंपरिक विधान में काञ्चीपुरम् की भगवती कामाक्षी की पूजा-अर्चना संपन्न होती हैं। उस ग्रंथ में इसका प्रस्ताव है। अयोध्या में हमने भगवान श्रीराम की कुलदेवी के मंदिर के दर्शन भी किये। समस्या के बारे में हिंदू और मुसलमानों के बीच परिचर्चा के समय श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी ने भी उक्त मंदिर के दर्शन किये। रामजी के पूर्वज- यानी सूर्यवंशी राजा-अयोध्याधीशों के लिए एक अलग कुलदेवी है - जिसका नाम है देवकाली! उन सभी राजाओं ने उस देवकाली माताजी की पूजा की थी। अयोध्या में भगवान रामजी के मंदिर के निर्माण से श्री जयेंद्रसरस्वती स्वामीजी का संकल्प और प्रकल्प सिद्ध हुआ और यह हर्ष का विषय है।

प्रश्न: सनातन धर्म पर हो रहे हमलों के कारण एक औसत हिंदू बहुत चिंतित है। ऐसे लोगों के लिए सांत्वना के तौर पर आपश्री क्या बताना चाहेंगे?

पूज्यश्री का उत्तर : यह दुर्भाग्य है। देश की दुस्थिति है। इस स्थिति से हम उबर सकते हैं पर इसके लिए हमें आत्मविश्वास चाहिए, भगवान में विश्वास और लोगों के पारस्परिक विश्वास के साथ आगे बढना है। प्रभु के वचनों पर, मातृदेवोभव, पितृदेवोभव- इस प्रकार के वचनों पर हमें स्वयं यकीन मानना चाहिए। इसके साथ साथ बहुत ही प्राथमिक स्तर से धर्म का प्रचार करना होगा। इसके लिए दाताओं और नेताओं की ओर से स्माल चैरिटी (बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर दान) चाहिए। छोटे छोटे यज्ञ, यागादि कार्य, हवन होने चाहिए। कहा गया कि “यज्ञोदानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणां” अर्थात् यज्ञ, याग, हवन, दानशीलता और अनुशासन चाहिए। यही हिंदू धर्म है। हमारा दर्शन ‘आत्मदर्शन’ है न कि ‘प्रदर्शन’। सभी धर्मों और मजहबों के मध्य एक सी.एम.पी.हो। “कॉमन मिनिमम् प्रोग्राम’ नहीं बल्कि ‘कॉमन मैग्जिमम् प्रोग्राम’ हो!

इस देश में अभी भी लोगों के बीच परिवार और सेवा के प्रति आदर-सम्मान है। अगर कोई अच्छा कार्य कर रहा है, तो उनको सम्मान देने की परंपरा अभी कायम है। चाहे नाम और रूप बदल गये हों किंतु सनातन धर्म के प्रति श्रद्ध और भक्ति अभी भी समाज में विद्यमान हैं। इसीलिए इस प्रकार की शांति उपस्थित हो पायी। भारत की मिट्टी का ही एक भला स्वभाव है। सबको मिलकर उसकी रक्षा करनी होगी। अतीत में बहुत कुछ हुआ। वह सब अतीत है। वर्तमान में हमें वास्तविक रूप-दर्शन की आवश्यकता है। बीच में जो परिवर्तन हुए, जो द्वेष पनपे – इन सबसे मुक्ति पानी चाहिए। समाज के विकास हेतु कर्म करना होगा। प्रार्थना और प्रयास – ये ही मनुष्य के लिए दो आँखें हैं। यही रामजी का दिया हुआ संदेश है। ‘बलं विष्णोः प्रवर्धितां” – यह सहानुभूति की अभिव्यक्ति है। 22 जनवरी के दिन जो होगा वह सहानुभूति और सौजन्य का कार्यक्रम है। इसे स्पर्धा की दृष्टि से देखना नहीं चाहिए। समाज और सरकार को बहुत कुछ करना है। सभी लोगों को उस पर ध्यान देना होगा। सकारात्मक नजरिये से सबको देश की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी।

हमारे अंदर स्थैर्य और धैर्य का प्रसारण हों। हमारे उद्देश्य भले हों और द्वेषरहित हों। परमेश्वर ने सबको समानरूप से हवा और पानी दिया है। उनको समानरूप से बांटना है कि नहीं! सत्ता को ही नहीं, जिम्मेदारी को भी समानरूप से बांटें, तभी ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना साकार होगी। 

अखण्ड भारत और सनातन हिंदू धर्म की व्याप्ति- ये भावनाएँ हमारे अंदर प्रसारित हों। हम अपने घर को सुधारेंगे और साथ ही साथ नजर को भी सुधारेंगे। “मित्रस्य चक्षुष” कहा गया है। अर्थात् हमारी नजर द्वेष से रहित होनी चाहिए। “ईशावास्यमिदंसर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्- तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्”- अर्थात् हमें किसी पराये धन की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए।

 प्रश्न: अयोध्या में होनेवाले प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम पर दो शब्द….  

पूज्यश्री का उत्तर :  कह गये हैं कि “देवानां पूः अयोध्या…” अर्थात् अयोध्या देवताओं का धाम है और आज उस अयोध्या में मंदिर का निर्माण हो गया है। उसके साथ-साथ धार्मिक शिक्षा के केंद्र भी बनवाने चाहिए। कहावत है कि ‘उत्तर की शक्ति और दक्षिण की भक्ति’! उत्तर की कृति और दक्षिण की संस्कृति दोनों का मिलाप हो! भारत के भूतपूर्व उपराष्ट्रपति और संयुक्त आंध्रप्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल श्री कृष्णकान्त के आगमन पर परमाचार्य जी ने वार्तालाप के दौरान ‘भारत महान” कहा था! वह महत्व हमें अब मिलना चाहिए। प्रभुत्व (शासन) तो आ चुका है किंतु महत्व का आना बाकी है। परमाचार्य जी का कथन है कि पंचमहायज्ञ के अंतर्गत वैश्वदेव प्रतिनिधि के रूप में एक मुट्ठी भर चावल को अलग रखना चाहिए और वह ‘मुष्टि तण्डुलम्’ है। सभी को इसप्रकार करना चाहिए। दान और योगदान हर तरफ से हों! हर गाँव के राममंदिर में सभी लोग बैठकर इस पर विचार करें और आचरण में लाकर प्रभु के आशीष प्राप्त करें। 

प्रश्न: अयोध्या अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आध्यात्मिक केंद्र बनने की दिशा में है और इस पडाव पर आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से किस प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए? और उस पर आपश्री जैसे महात्माओं के क्या विचार हैं?

पूज्यश्री का उत्तर :  देश की स्वाधीनता के पश्चात लौकिक शिक्षा में तो प्रवीणता हासिल की गयी है। फिर भी इस क्षेत्र में भी हम पूरीतरह से आत्मनिर्भर नहीं बन पाये। आज भी बहुत सारे छात्र विदेशों में जाकर पढाई करना चाहते हैं। अनावश्यक पढाई के लिए भी विदेशों में जा रहे हैं। वह एक तरफ है, किंतु एक समय आंध्रप्रदेश सहित सारे दक्षिन के राज्यों में धार्मिक शिक्षा के अनुष्ठान बहुत हुआ करते थे। हमें देखना चाहिए कि उनकी संख्या में कमी न आने दें। अयोध्या में धर्मविद्या का केंद्र भी स्थापित होना चाहिए। विविध स्तरों पर धर्म की शिक्षा प्रचारित होनी चाहिए। अयोध्या के साथ-साथ ब्रजभूमि, अवधी और पूर्वांचल तक इनका आयोजन होना चाहिए। तिरुमला-तिरुपति की तरह धर्मप्रचार परिषद् की संरचना होनी चाहिए। पण्डा, पुजारी और पुरोहित कल्याण-योजना के माध्यम से उनको जीविका और अन्य उपकार मिलें। जैसा कि तिरुमला में होता है- ‘नादनीराजनम्’ जैसे भक्ति सकीर्तन और सांप्रदायिक संगीत-कार्यक्रम अयोध्या में भी हों। ‘हर पंचायत में पण्डित हो और हर मंदिर तिरुपति हो’ यही नारा लेकर काम करना है। 

प्रश्न: अयोध्या का प्रभाव काशी और मथुरा पर कैसे होगा?

पूज्यश्री का उत्तर :  हमें तो मात्र भावना की आवश्यकता है। बाकी सब भगवदनुकम्पा है। शांति-अमन और सुरक्षा हमारे लिए सर्वोपरि हैं। काल और समय जब साथ दें तब उसके अनुकूल संदर्भ अपने आप बन जायेगा। हम आशा करते हैं कि सब कुछ अच्छा हो।

प्रश्न: हिंदू धर्म अन्य धर्मों और विश्वासों से किस प्रकार भिन्न है?

पूज्यश्री का उत्तर :  सनातनधर्म सार्वजनीन है और राग-द्वेषादि से परे है। जड और चेतन को समानरूप से देखने की क्षमता रखना और उसी प्रकार देखना सनातन धर्म में है। यह सर्वव्यापी धर्म है। हमारा भाव सर्वात्मवादी और एकात्मवादी है। ‘देह और देव के बीच में पडकर देश को न भूलें’- यही युवा के लिए हमारा संदेश है। पुनः भारत विश्वगुरु बने, यही हमारी आकांक्षा है।

“मङ्गलं कोसलेन्द्राय, महनीय गुणात्मने- चक्रवर्ति तनूजाय सार्वभौमाय मङ्गलम्”

 

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अयोध्या और काञ्ची के आदि से थे गहरे ऐतिहासिक संबंध!

आध्यात्मिक मार्ग में हर व्यक्ति ज्ञान और मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही प्रयास करता है। इस मार्ग में उसके लिए सहायक बननेवाले और वरप्रदान करनेवाले सात नगरों की कथा अति प्राचीन है। उनमें से अयोध्या का स्थान प्रथम है तो काञ्ची भी उनमें एक नगर है। अर्थात् मुक्ति प्रदान करनेवाले नगरों में एक काञ्ची है। यह इन दो क्षेत्रों के बीच एक समानता है। कहीं उत्तर में बसे अयोध्या को दक्षिण के छोर पर स्थित काञ्चीपुरम् के बीच एक और गहरा बन्धन है। संतान के लिए तडपते राजा दशरथ का काञ्चीनगर-संदर्शन ही वह बन्धन है। इस वृत्तान्त को लेकर ‘ललितोपाख्यान’ में प्रसंग हैं। 

‘ललितोपाख्यान’ ग्रंथ में 3940 वें अध्यायों में इस वृत्त्तान्त का विशद वर्णन है। सूर्यवंशी राजा दशरथ को स्वप्न में भगवती के दर्शन हुए। ध्यान रहे, सूर्यवंशी राजाओं की कुलदेवी भगवती ही हैं। सूर्यवंशी नरेशों के द्वारा पूजित माँ भगवती का मंदिर अयोध्या में विद्यमान है। भगवती ने राजा दशरथ को सूचित किया कि संतान पाने के लिए कामकौष्टम् (काञ्चीपुरम्) जायें और भगवती कामाक्षी के दर्शन करें। ललितोपाख्यान कहता है कि सपने में भगवती के द्वारा प्रेरित राजा दशरथ संतान की कामना लेकर काञ्चीनगर आये और उन्होंने पुत्रप्राप्ति हेतु भगवती कामाक्षी की प्रार्थना की थी। इस प्रार्थना से संबंधित श्लोक भी ललितोपाख्यान ग्रंथ में हैं। दशरथजी ने कौसल्या को अपने सपने के बारे में बताया और काञ्चीनगर की ओर प्रस्थान किया। लगभग 12 हजार मील की यात्रा करने के उपरान्त वे काञ्चीनगर को प्राप्त हुए और सात रातें और सात दिन तक अत्यंत कठोर नियमों के साथ लगातार तपस्या की। राजा दशरथ ने माता कामाक्षी के बारे में तरह-तरह के स्तुतिपाठ किये। इसके अंतर्गत ‘दशरथमहाराज कृतकामाक्षीस्त्रोत्रम्’ एक है जो अत्यंत प्रसिद्ध है। ग्रंथ में विवरण है कि राजा दशरथ ने वहाँ के पंडितों को कीमती रेशम के वस्त्रों से सम्मानित किया। राजा की भक्ति से भगवती कामाक्षी प्रसन्न हुईं और “चत्वारन्ते जनिष्यन्ति मदंशाः” अर्थात् ‘मेरे ही दिव्यांश को लेकर आपको चार पुत्र होंगे’ कहकर वरदान दिया। इस प्रकार भगवती की अनुकम्पा से ही राम, लक्ष्मण, भरत और शतृघ्न अवतरित हुए।

श्रीराम के अवतार का महत्व :  समस्त मानवजाति की रक्षा के लिए, धर्म के संरक्षण के लिए भगवान मनुष्य के रूप लेकर अवतरित होंगे और अपने आदर्शजीवन और व्यवहार से सभी जनों का पथप्रदर्शन करेंगे कि अनुसरणीय मार्ग क्या है और किसप्रकार जीवन-यापन करना है। उस विधान के अनुसार राजा दशरथ के पुत्र के रूप में जन्मे भगवान श्रीराम ने अपने जीवन के माध्यम से उस मार्ग को प्रशस्त किया जिस पर चलकर सभी लोग प्रेम और श्रद्धापूर्वक धर्म का आचरण कर सकेंगे। उन्होंने यह भी अपने जीवन में करके दिखाया कि किसप्रकार माता-पिता का आदर-सम्मान करना है और सामाजिक क्रियाकलापों में सभी को मिलाकर समरसता से कैसे भाग लेना है। इसी कारणवश सनातन हिंदू धर्म में भगवान श्रीरामचन्द्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इसीलिए भगवान श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा गया है। इसीलिए एक आदर्शपुरुष के रूप में सदियों से उनकी पूजा चलती आ रही है।

अयोध्या एक शक्तिपीठ है : अयोध्या भी एक शक्तिपीठ है। पञ्चभूतलिंग -तीर्थस्थानों में जिस प्रकार काञ्चीपुरम्, जम्बुकेश्वरम्, अरुणाचलम्, श्रीकालहस्ति और चिदम्बरम् हैं, उसी प्रकार “अयोध्यादिषु पीठेषु पृथिव्यादिष्वनुक्रमः” के अनुसार शक्ति के पञ्चभूत क्षेत्रों में से पृथ्वीक्षेत्र अयोध्या का स्थान है। शिवजी के पञ्चभूत तीर्थस्थानों में पृथ्वीक्षेत्र काञ्चीपुरम् है। काञ्ची और सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या के बीच संबंध इसप्रकार बनता है।

कलियुग में धर्म पथभ्रष्ट हो रहा है और जनता त्राहि-त्राहि मचा रही है, इस क्षण में श्रीराम सब के लिए युग की आवश्यकता बने हुए हैं। इसी कारणवश अयोध्या में निर्मित भगवान श्रीरामचन्द्र जी का भव्यमंदिर इस कदर महत्वपूर्ण बन चुका है। वहाँ पर भगवान श्रीरामचन्द्र एक मूर्ति के रूप में विद्यमान होंगे फिर भी समस्त जनता के लिए आदर्शपूर्ण एवं धर्मयुक्त जीवन-यापन करने में रामजी ही सबके लिए आलम्बन होंगे। इसीलिए भगवान श्रीराम के मंदिर-निर्माण को लेकर भारत की जनता हर्ष से पुलकित हो रही है। ‘एक भरोसो एक बल- एक आस विश्वास’ - भगवान श्रीराम ही उनका संबल हैं!

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